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सोमवार, अगस्त 22, 2011

रुकना नहीं थकना नहीं,
तू क्षण भर भी.
 अब देश को तेरी जरुरत है,
कर वादा ये अपने से तू,
 जंग जीत पताका फहराएँ. 
अब  रार गैरों से नही अपनों से है,
रणभूमि तेरा अपना घर है.
शब्दों को  अपना खडग बना,
निनाद तेरा मुक्तकंठ हो. 
अपनों ने भेदा खंजर ,
अपनों का खून बहाए हैं
छाती छलनी हो जाता है ,
जब विश्वास हमारा खोता है
अब और नही बस और नही,
 अक्षम्य कृत किया जिसने, 
विश्वास देश का लुटा है.
कृत्घन हो चुके दम्भी को, 
दंड अब जनता देगी.
 
 
 

हमारे अन्ना हजारे ने पिछले छःदिनों से अन्न ग्रहण नही किया है
हम सभी किसी ना किसी रूप में उनका समर्थन कर रहे है.
मेरा आप सब से नम्र निवेदन है की आप सब अपने हिस्से की एक रोटी किसी गाय को खिलाएं,
और ईश्वर से प्रार्थना करें की इस अन्न की ताकत वो अन्ना जी को दें.
ताकि वो स्वस्थ रहें और सरकार को हमारी मांग पूरी करने को मजबूर करदें .जय हिंद. 

गुरुवार, अगस्त 18, 2011

नियति


शाम से ही एक धुंधला साया,
आँखों के सामने आ रहा था.
बाज़ार के भीड़ में,
एक चिर परिचित सूरत दिखी,
पल भर में वो ओझल.
अनमनी सी मै भीड़ का हिस्सा हो गयी
तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा,
आँखों में प्रश्न लिए
वही चेहरा मेरे सामने था.
मुझे ढूंढ़ रही थी?
मैंने हाँ में सिर हिलाकर ना कहा,
वो हंस पड़ा !
बोला वही पुरानी आदत.
निर्भीक मेरा हाथ थाम्हे,
भीड़ से अलग ले गया,
पूछा.. तुम कब आयीं?
निशब्द:...
अपलक उसे निहारती मैं!
मौन मैं! कुछ कह रही थी...
क्या तुम वही हो?
दूसरों को राह दिखाने वाले,
अपनी मंजिल तो बता..
बहुत  बदल गये हो. 
मेरे शब्द थे,
(निरर्थक हँसने के प्रयास में
कभी कभी सारे दर्द बयाँ हो जाते हैं)
क्या हुआ मुझे,अच्छा भला तो हूँ.
मैंने बात बदल दी.
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो,
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो.
गम क्या गम ? हँसते हुए उसने कहा.
और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा.
बात बदलना तुमने कब सिखा,
तुम्हारे जाने के बाद बहुत कुछ सिखा,
सभी कुछ ना कुछ सिखाते ही रहते हैं.
तुम गयी मैं वहीँ कहीं पड़ा हूँ.
उसी खिड़की पर अबतक खड़ा हूँ.
तुमसे बात करता हूँ झगड़ता हूँ,मनाता हूँ ,
वो सब करता हूँ जो तुम्हे पसंद था.
क्यूँ करते हो?
ये निर्णय तुम्हारा ही था,
तुमने कहा वही करो,
 जो ईश्वर की मर्जी है.
मेरे ईश्वर तो तुम ही थे.....
समय की मांग वही थी
उसने कहा.
फिर ये उदासी और पश्च्याताप  क्यूँ?
जानता था तुम्हारे बिन जीवन नही,
पर इस कदर बीतेगी सोचा न था.
अब तो साँस लेने की इच्छा नही होती,
मैं मर चूका हूँ मेरी जीने की कसक मर चुकी है.
कोमा में पड़े किसी शरीर की तरह हो गया हूँ,
जिसकी सांसे तो चल रही है,
पर उसे महसूस नहीं होता. 
तुम्हे खुश देखकर अच्छा लगता है.
और मेरा क्या ?
तुम्हे ऐसे देख मुझपर क्या गुजरती है
सोचा है कभी?
 मेरे शब्द उसे निरीह कर गये,
मैं उठकर चली आई,
वो देर तक देखता रहा,

गुरुवार, अगस्त 04, 2011


मै अबोध ,क्या जानू सुन्दरता
तुमने कहा बहुत सुन्दर हो.
                    "मै संवरना सिख गयी"
                     मै अल्हड़ ,चंचल हिरनी,
तुम्हारे आगे पीछे डोलती ,भागती,
डगर का पता ना मंजिल का.
                     तुमने हाथ थाम्हा,
                    " मै चलना सीख़ गयी "
मैंने अधिकार जताया
तुमने समर्पण का भाव दर्शाया .
                       " मै समर्पित होना सीख़ गयी"
तुमने  कठिन जीवन में ,
प्रेम का सरल अर्थ समझाया
                           हमारे प्रेम को कृष्ण-राधे सा मधुर साहचर्य  बनाया.
 
 

बुधवार, अगस्त 03, 2011

खाई थी कसम ना पीने की उम्र भर,
खुद ही से वादा कर मुकर गया ,
सुना है फिर बिगड़ गया वो.
किसी ने निगाहों से पिला दी,
तो बिखर गया वो.
की थी जिन गलियों में जाने से तौबा,
हसरतें मुहब्बत तो देखिये,
उन्ही रास्तों पर डेरा जमाये बैठा है.
जो कहता था दूर रहना इन पर्दानशीनो से,
किसी की मुस्कुराती लबों पे
मर गया वो.
  

सोमवार, अगस्त 01, 2011

माँ..माँ
क्या तू सुन रही है?
तुझमे  मैं और मुझमे तू है.
तेरा दर्पण,तेरा चेहरा,तेरी ही तो अक्श हूँ मैं.
माँ,ओ मेरी माँ......
तेरी आँखे,तेरी सांसे,तेरा ही तो रक्त हूँ मैं.
फिर क्यूँ  मेरे अपने मुझसे रूठे...
मुझको तेरी गोद से रोके,   
किलकारी क्यूँ मेरी घोंटे.
जानती हूँ  मजबूर है.
तभी तू मुझसे दूर है.
कबतक मौन रहेगी माँ...
कितना दर्द सहेगी माँ?