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गुरुवार, अगस्त 18, 2011

नियति


शाम से ही एक धुंधला साया,
आँखों के सामने आ रहा था.
बाज़ार के भीड़ में,
एक चिर परिचित सूरत दिखी,
पल भर में वो ओझल.
अनमनी सी मै भीड़ का हिस्सा हो गयी
तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा,
आँखों में प्रश्न लिए
वही चेहरा मेरे सामने था.
मुझे ढूंढ़ रही थी?
मैंने हाँ में सिर हिलाकर ना कहा,
वो हंस पड़ा !
बोला वही पुरानी आदत.
निर्भीक मेरा हाथ थाम्हे,
भीड़ से अलग ले गया,
पूछा.. तुम कब आयीं?
निशब्द:...
अपलक उसे निहारती मैं!
मौन मैं! कुछ कह रही थी...
क्या तुम वही हो?
दूसरों को राह दिखाने वाले,
अपनी मंजिल तो बता..
बहुत  बदल गये हो. 
मेरे शब्द थे,
(निरर्थक हँसने के प्रयास में
कभी कभी सारे दर्द बयाँ हो जाते हैं)
क्या हुआ मुझे,अच्छा भला तो हूँ.
मैंने बात बदल दी.
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो,
क्या गम है जिसको छुपा रहे हो.
गम क्या गम ? हँसते हुए उसने कहा.
और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा.
बात बदलना तुमने कब सिखा,
तुम्हारे जाने के बाद बहुत कुछ सिखा,
सभी कुछ ना कुछ सिखाते ही रहते हैं.
तुम गयी मैं वहीँ कहीं पड़ा हूँ.
उसी खिड़की पर अबतक खड़ा हूँ.
तुमसे बात करता हूँ झगड़ता हूँ,मनाता हूँ ,
वो सब करता हूँ जो तुम्हे पसंद था.
क्यूँ करते हो?
ये निर्णय तुम्हारा ही था,
तुमने कहा वही करो,
 जो ईश्वर की मर्जी है.
मेरे ईश्वर तो तुम ही थे.....
समय की मांग वही थी
उसने कहा.
फिर ये उदासी और पश्च्याताप  क्यूँ?
जानता था तुम्हारे बिन जीवन नही,
पर इस कदर बीतेगी सोचा न था.
अब तो साँस लेने की इच्छा नही होती,
मैं मर चूका हूँ मेरी जीने की कसक मर चुकी है.
कोमा में पड़े किसी शरीर की तरह हो गया हूँ,
जिसकी सांसे तो चल रही है,
पर उसे महसूस नहीं होता. 
तुम्हे खुश देखकर अच्छा लगता है.
और मेरा क्या ?
तुम्हे ऐसे देख मुझपर क्या गुजरती है
सोचा है कभी?
 मेरे शब्द उसे निरीह कर गये,
मैं उठकर चली आई,
वो देर तक देखता रहा,

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