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सोमवार, अक्तूबर 10, 2011

माँ.

खुद में तुझको ढूंढ़ रही हूँ,  माँ.......... ! ! !
कहाँ है तू ...?
तुमने कहा मुझमे है तू ,
मै तेरी परछाई हूँ !
कहाँ है माँ.........
नहीं! मुझमे तुझ सी शक्ति,
ना सहन शक्ति,
प्रेम और भक्ति...
कभी क्रोध क्यूँ नही आता तुझे,
कैसे हर पल हंसती रहती है.
सबको पल में खुश करती है.
इतना सब कैसे सहती है ....
माँ मुझमे कहाँ है तू........
कितनी भी कोशिश करती हूँ,
तुझसी ना मैं बन पाती हूँ,
क्षण मे विचलित हो जाती हूँ..
क्रोध का घेरा माथे पर,
संयम अपना खो देती हूँ..
फिर तेरी याद रुलाती है,
धीरे धीरे तू मन में समाती है,
तस्वीर तेरी समझाती है.
मुझे देख मुस्काती है..
माँ......................
खुद में तुझको ढूंढ़ रही हूँ.







1 टिप्पणी:

  1. माँ से बढकर कोई नहीं इस संसार में
    और मैं तो ये भी कहुनग कि , ईश्वर का सच्चा स्वरुप ही माँ है .

    आपकी ये कविता मुझे बहुत अच्छा लगी .
    बधाई !!
    आभार
    विजय
    -----------
    कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html

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आपकी सराहना ही मेरा प्रोत्साहन है.
आपका हार्दिक धन्यवाद्.