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शनिवार, अगस्त 21, 2010

लिप्सा

उस सृष्टिकर्ता के समक्ष
 रे  मुर्ख मनुष्य
तू ले अपना आविष्कार खड़ा
करवाने सत्कार खड़ा
गगन चुम्बी इमारतें,
परिंदों संग उड़ने की लालसा.
सब कुछ पा लेने की उन्माद में,
बहता आगे चला गया
आत्मश्लाघी बन तुने
अहंकारी अट्ठास किया.
अपनी लिप्सा में अंध ,
देखा सका ना,
तुने खोदी है खाई
प्रभु की इस सुन्दर रचना की,
क्या बीभत्स रूप किया.
मूर्ख मनु  तू नही जानता
उसकी अगली चाल है क्या?
तुने किया है छल प्रकृति से,
तु ही मूल्य चुकाएगा
अपनी वांछा पे संयम रख
उस अदृश्य शक्ति से
नहीं कभी बच पायेगा . 

 

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